Thursday, January 1, 2015

मानवता की पुकार

- विनोबा

 (विनोबाजी का यह लेख आचार्यकुल पत्रिका (दिसम्बर 2014) के अंक में मैंने पढ़ा और महसूस किया कि इसे सबको साथ साझा करना चाहिए। आज जो धार्मिक और सामाजिक आचरण में अधिकाधिक विवेकशून्यता और असहिष्णुता का माहौल बनते जा रहा है, उस समय इसे पढ़ना मेरे खयाल से उपयोगी होगा।)

आज सारी दुनिया में एक चाह है। कोई शक्ति उसे खींच रही है। यह शक्ति है मानवता, जो मानव से कह रही है कि हे मानव तू अ-मानव बन गया है, अपनी यह अ- मानवता फेंक दे, अपना निज का स्वरूप देख और फिर से मानव बन! इस तरह मावता पुकार रही है, आह्वान कर रही है, जिसके कारण सबका झुकाव उस ओर हो रहा है। अब सारा मानव-समाज अत्यन्त वेग से बदलने वाला है।
एक बार एक जैन लड़के से पूछा "तू कौन है - जैन या मनुष्य?प्रश्न सुनकर लड़के को मज़ा आया। परन्तु उनने ज़रा भी विचार किए सीधा जवाब दिया - मैं मनुष्य हूँ। एक छोटा सा बच्चा भी इतना जानता है कि मैं सबसे पहले मनुष्य हूँ और बाद में और सबकुछ! परन्तु बड़े आदमी इतनी सीधी सी बात भी नहीं समझ सकते। मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है, इसके चर्चा करते-करते नीतिशास्त्र ने कहा है, मनुष्यता! उस लड़के ने भी तो यही कहा। मनुष्यता के मुख्य धर्म को याद रखकर हमें संसार में सब काम करना चाहिए। हिन्दु, मुसलमान, ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर सब याद रखें कि पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता को छोड़कर हम हिन्दु, मुसलमान, ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर कुछ भी नहीं रह जाते। हिन्दु भी तो आदमी ही होता है। जो आदमी नहीं वह हिन्दु कैसे? वैसे ही मुसलमान और अन्य भी कैसे? लड़ने की ज़रूरत पड़े तो लड़िए, झगड़िए, उसमें आपत्ति नहीं; पर मानवता मत छोडिए। सम्भवतः वह लड़का पूछेगा, क्यों जी, मनुष्यता लड़ना आता है? मानवता में लड़ना न आए फिर भी कम से कम लड़ने में तो मानवता रखें।
इसाई, इस्लाम, बौद्ध, वैदिक इन सब धर्मों के पास अपने-अपने अनुभव हैं, मानवता के अलावा। बहुत से लोग कहते हैं कि हमने मानवता का, करुणा का काम किया तो धर्मातरण किया। मैं कहूँगा कि मानवता तो कम से कम धर्म है। हिन्दू धर्म मानव-करुणा से कुछ अधिक है। इस्लाम भी उससे कुछ अधिक है। बैद्ध भी अधिक है और इसाई भी।
यह जो कुछ अधिक है, वह छोड़ दें, तो सब धर्मों का यह हाईएस्ट कॉमन फैक्टर (उच्चतम समान अंश) मानवता होगा। उसको कहते है हाईएस्ट (उच्चतम) लेकिन वह है लोएस्च (लघुतम)। भिन्न-भिन्न धर्मों में मानवता के अलावा कुछ गूढ़ आध्यात्मिक अनुभव होते हैं। अपना-अपना अनुभव छोड़ना नहीं चाहिए, बल्कि को भी जो अनुभव है, उसे सुनकर अपनी पुष्टि करनी चाहिए। आध्यात्मिक अनुभवों का अदान-प्रदान होना चाहिए।
किसी मनुष्य को उपासना का अध्ययन, उसका अनुभव और लाभ लेने से रोकना गलत है। हम यह नहीं कह सकेंगे कि तुम एक दफा तय कर लो कि तुम्हें राम की या उपासना करनी है या कृष्ण का नाम लेना है, इस्लाम का नाम लेना है या ईसा के पीछे जाना है, और यह तय कर लेने के बाद दूसरे मन्दिर में मत जाओ। ऐसा कहना उपासना को मानवता की अपेक्षा संकुचित करना है। उपासना मानवता से बहुत बड़ी चीज़ है। इस दृष्टि से इस सवाल पर बहुत गहराई से सोचना चाहिए।
यह ठीक है कि जिस उपासना में हम पले, उसका परिणाम हमारे ऊपर रहता है, उसका मिटाना नही चाहिए। पर दूसरी उपासना से लाभ नहीं उठाना, यह बात गलत है। उपासना को संकुचित नहीं बनाना चाहिए। उससे उसमें न्यूनता आ जाती है। उपासनाएँ एक दूसरे के लिए परिपोषक होती हैं।
शंकाराचार्य ने जोड़ने का ही काम किया। वे थे आद्वैत को मानने वाले, पर उन्होंने पंचायतन-पूजा सिखाई। अद्वैत में पंचायतन नहीं आता। लेकिन उन्होंने देखा, उस समय पाँच पंच थे, तो पंचायतान के रूप में सबको एकत्र ला सकते हैं। मानवता होगी तभी ऐसे प्रयत्न हो सरते हैं।
प्रथम हम मानव हैं और मानवता के नाते जो कर्तव्य है, वह हमारा प्रथम कर्तव्य है। उपासना के नाम से जो कर्तव्य आएगा, वह उसके बाद आएगा। दर्शन, सम्प्रदाय आदि से आने वाले कर्तव्य बाद में आते हैं। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट एक-दूसरे के चर्चों में जाते नहीं। यानी उपासना में भी दर्शन-भेद, सम्प्रदाय-भेद होते हैं। हिन्दुओं में भी रामानुज सम्प्रदाय के लोग शंकर सम्प्रदाय के ग्रन्थ नहीं पड़ते। उनके स्तोत्र अलग होते हैं, इनके अलग होते हैं। मैंने ऐसे भी लोग देखें हैं, जिन्हें शांकर पन्थ की सभी टीकाएँ पढ़ीं हैं, लेकिन रामानुज का गीता भाष्य देखा तक नहीं है। एक से तो मैंने पूछा भी कि रामानुज का भाष्य क्यों नहीं पढ़ा? तो उसने कहा, वे भिन्न सम्प्रदाय के हैं इसलिए नहीं पढ़ा। इस प्रकार कहीं-कहीं दार्शनिक भेदों के कारण और उपासना भेदों के कारण भी भेद आता है। यह भेद एक ओर रखकर, मानवता को न खोते हुए उपासना करनी चाहिए।
उपासना यानी मानवता प्लस (अधिक) कुछ होना चाहिए। उपासना यानी मानवता मायनस (कम) कुछ, ऐसा नहीं होना चाहिए। आजकल ऐसा होता है कि हिन्दू मानवता से कुछ कम, मुसलमान यानी मानवता से कुछ कम; लेकिन होना यह चाहिए कि मानवता प्लस कुछ यानी हिन्दू, मानवता प्लस कुछ यानी मुसलमान, मानवता प्लस कुछ यानी ईसाई। ऐसा होता तब उपासना-भेद, दार्शनिक-भेद रहेंगे परन्तु वे गौण होंगे। रीति-रिवाज़ों के भेद तो बिल्कुल स्थुल गिने जाएँगे। इसलिए वे गौण माने जाएँगे। कुरान में पैगम्बर साहब ने कहा है, आप प्रार्थना के समय इस दिशा की ओर मुँह करते हो या उस दिशा की ओर, इसका ईश्वर की उपासना से कोई सम्बन्ध नहीं, धार्मिकता यानी सच्चाई, ईश्वर भक्ति। कुरान के इस वचन के बावजूद, दिशा के बारे में उनका विशेष आग्रह है। ये सब रस्म-रिवाज़ गौण हैं और वे जाने चाहिए। लेकिन उपासना-भेद और दार्शनिक-भेद, जो वैचारिक चिन्तन के विषय हैं, वे सब इकट्ठा कर एक परिपूर्ण दर्शन बनाया जा सकता है। इसलिए धर्म के मानी होने चाहिए मानवता प्लस और कुछ। मानवता कम पड़ेगी तो एक भी धर्म टिकेगा नहीं। हिन्दुस्तान के हम सब लोगों को - हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि जो मानवता को मानते हैं उन सब लोगों को यह भूमिका लेनी चाहिए कि हम सब एक हैं। और यह मानकर कि हम सब एक हैं, परस्पर विचार-विनिमय, चर्चा करनी चाहिए। एक-दूसरे के विचार सुन लेने चाहिए, यहाँ सब वाद खत्म होते हैं, ऐसा हितकर संवाद हम चलाएँ। आज कम से कम इतना होने कि मानवता को मानने वाले हम सब एक हैं।

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