सफरनामा

सफरनामा – एक
रंगीन छल्ले
मुझे अपने दफ्तर के काम से रायपुर जाना था। सीधे टिकट न मिला तो दो टुकड़ों में सफर करना पड़ रहा था। पहले पड़ाव के लिए हबीबगंज से इटारसी के लिए जनशताब्दी एक्सप्रेस से निकला। गाड़ी में वेज कटलेट, कुरकुरे, चिप्स, चाय, कॉफी वगैराह बेचने वाले 2-3 लड़के आ-जा रहे थे। एल लम्बे बोझिल सफर की मानसिक थकान की वजह से मुझे नींद के झौंके आ रहे थे। तकरीबन आधा फासला तय किया था कि अचानक नींद उचटी। देखा तो पाया कि मेरी नज़रों के सामने रंग-बिरंगे विविध आकार-प्रकार के चाबी के छल्लों की एक लड़ी लटक रही है। उसे देख कर मुझे लगा मानो यह किसी रंगीन मिजाज़ हाथी की सजी-धजी सूँड हो। वह ठीक मेरे दाहिने कन्धे के सामने लटक रही थी। ऊपर पंखे की जाली में उसका हुकनुमा सीरा अटका था। छल्ले बेचने वाले ने इसके लिए पंखा बन्द कर दिया था। मेरी नींद में खलल का शायद यही सबब था।

छल्ले खूबसूरत थे। कुछ में तो रोशनी भी जल-बुझ रही थी। करीबन 15-16 साल का एक दुबला-पतला लड़का उन्हें बेच रहा था। उसने नीले रंग की आधी बाँह की कमीज़ पहनी हुई थी, जो उसके घने काले तन पर फब रही था। आम तौर पर सरकारी स्कूलों की वर्दी भी ऐसी ही होती है। पर वो शायद स्कूल काफी पहले छोड़ चुका होगा। उसके पास छल्लों की कुल तीन लडियाँ थी, आगे बढ़ते हुए वो एक-एक कर उन्हें पंखों में लटकाता जाता। कुछ लोग देख रहे थे, कुछ मोलभाव कर रहे थे और कुछ खऱीद रहे थे। साथ ही मेरे आगे-पीछे की सीटों पर दो शिशुओं में तीखी से तीखी होती आवाज़ में रोने का मुकाबला शुरु हो गया। मैं समझ नहीं पाया कि वे अपनी पसन्द का छल्ला लेना चाहते हैं या उनकी आकृतियों, रंगों से डर गए हैं या उनकी कोई और माँग है या फिर यूँ ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए रो रहे हैं।

अपने आगे 3-4 पंक्तियों के आगे मैंने देखा कि एक पंखे को बन्द कर वह लड़का छल्लों की लड़ी का हुक फँसाने का उपक्रम कर रहा था। उस वक्त तक पंखा पूरी तरह थमा नहीं था। लड़के की कोशिश के से कड-कडाहट की आवाज़ के साथ पंखा रुक गया और हुक भी फँस गया। लड़के के लिए यह शायद सामान्य बात थी। वह आगे बढ़ कर दूसरी लड़ी के पास चले गया। कुछ वक्त बीता तो एक नाटे कद के टी.टी. का चेहरा सामने की ओर से आता दिखा। मुझसे 3-4 कतार पहले, जहाँ पंखे की आवाज़ आई थी, एक और कड़क आवाज़ आई। इस बार यह इन्सानी आवाज़ थी। उस टी.टी. का चेहरा और छोटा हो गया। आँखें भी सिकुड़ गई। वो व्यक्ति छल्ले बेचने वाले की शिकायत कर रहा था। टी.टी. को डपट कर कह रहा था कि तुम उस लड़के का भी तो टिकट चेक करो। वो यहाँ सामान कैसे बेच रहा है? बड़े ही सहज भाव से टी.टी. ने उस व्यक्ति को शान्त करने का प्रयास किया और हाथ के इशारे से उस लड़के को पास बुलाया। तब वो एक फौजी को छल्ले दिखा रहा था। फौजी खड़ा था। यूँ तो जनशताब्दी एक्सप्रेस में खड़े होकर यात्रा करना मना है, मगर काफी लोग खड़े थे। खास तौर पर दरवाज़ों पर और उनके आसपास। लड़के ने टी.टी. को जवाबी इशारा कर बताया कि रुको, अभी आता हूँ। फिर वो फौजी को छल्ला बेचने में मशगूल हो गया।

नाराज़ व्यक्ति की आवाज़ और ज़्यादा ऊँची हो गई। वह टी.टी. पर बरस रहा था। उसे तसल्ली देने के लिहाज से ही टी.टी. ने लड़के को बुलन्द आवाज़ में माँ की गाली देते हुए बुलाया। उसने छल्लों का एक गुच्छा खोलते हुए टी.टी. की तरफ भावशून्य होकर देखा। फौजी को इच्छित छल्ला थमाया और उसके दिए पैसे जेब में ठूँसते हुए टी.टी. की ओर बढ़ने को हुआ। नाराज़ आवाज़, जो कुछ थम गई थी, फिर बुलन्द हुई। टी.टी. ने लड़के को छल्लों की तीनों लड़ियाँ समेट कर लाने को कहा। लड़के ने इत्मिनान से एक-एक कर पंखों के हुक से वो लड़ियाँ निकालीं और नीचे रखे बैग में भरने के बाद टी.टी. तक पहुँचा। टी.टी. ने उसे घुड़की दी। वो भावशून्य बना रहा। नाराज़ आवाज़ अब भी टी.टी. को कुछ हिदायतें दिए जा रही थी। कुछ पलों बाद टी.टी. ने लड़के को दूसरे दरवाज़े (जो मेरे पीछे की ओर था) पर जाने को कहा। वो लड़का कुछ बड़बड़ाता हुआ अपना भारी बैग लेकर रेंगता हुआ सा बढ़ा। वो कह रहा था सबको टाइम पर हफ्ता तो देता हूँ। फिर भी परेशान करते हैं। आज का धन्धा खराब कर दिया.... कहता हुआ वो मेरे पीछे वाले दरवाज़े पर लगी भीड़ में खड़ा हो गया और वहाँ पहले से खड़े-खड़े ताश खेलने वालों में समा गया। अब तक ताश की बाजी खत्म हो गई थी। कुछ देर पहले के बाजीगर अब तमाशबीन हो गए। टी.टी. एक-एक कर सबकी टिकट देखने का अपना कर्तव्य पूरा करने लगा।

अपना टिकट चैक करवा कर मैंने पीछे देखा तो वो लड़का किसी से तम्बाखू लेकर हाथ में मल रहा था। हल्की-फुल्की गपशप भी जारी थी। कुछ देर में टी.टी. वहाँ पहुँचा। टी.टी. और लड़के में कुछ बातें हो रही थीं। आवाज़ धीमी थी, सो मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। मैं चेहरों के भाव देख रहा था। बातचीत में दरवाज़े पर खड़े कुछ लोग भी बराबरी से शामिल थे। ये लोग शायद रोज़ाना रेल से आमदरफ्त करने वाले अपडाउनर थे। एक अपडाउनर ने लड़के की गरदन पीछे से पकड़ी ओर टी.टी. के पेट तक छुका दी। लड़के के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। सीधे होकर उसने हाथ भी जोड़ लिए और इस तरह माफी माँगने की रस्म मुकम्मल की।

कुछ ही देर में होशंगाबाद स्टेशन पर गाडी रुकी। फिर वो लड़का और टी.टी. गायब हो गए। बहुत से अपडाउनर भी उतर गए। गाड़ी आगे बढ़ी। अब भीड़ कुछ कम थी। हवा की आवाजाही का तन को पूरा-पूरा अहसास हो रहा था। माहौल भी शान्त सा हो गया। कुछ ही देर में उन दोनों शिशुओं की रोने का मुकाबला फिर शुरु हो गया। अब वो शायद उन रंगीन छल्लों की लड़ियों को न देख पाने के लिए रो रहे थे।
मार्च 4, 2014 

 

सफरनामा – दो

इंजन की दिशा में

पहले तो मेरी गाडी के 45 मिनट देरी से आने की सूचना थी, अब वो डेढ़ घण्टे देर से, यानी पौने ग्यारह बजे आने की उद्घोषणा हो रही थी। मैं छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के इन्तज़ार में इटारसी के प्लेटफार्म 3 पर पैर फैला कर बैठा था। बैंच बिल्कुल भी आरामदेह नहीं थी, बल्कि उसे तकलीफदेह कहना मुनासिब होगा। मगर खड़े रहने से उस पर बैठना ही बेहतर था, सो बैठा था। आसपास यूँ ही नज़रे घुमा रहा था। गर्दन में हल्की सी एंठन महसूस हो रही थी और घुमाने पर कुछ पल का सकून मिलता था।
मेरे सामने प्लेटफार्म नम्बर 4 और 5 था। प्लेटफार्म नम्बर 5 पर जबलपुर से दिल्ली जाने वाली रेल आकर रुकी हुई थी। जिन्हें उतरना था, उतर चुके थे और जिन्हें चढ़ना था वे चढ़ भी चुके थे। सफर की दिशा बदलने के लिए रेल का इंजन भी अब दूसरी ओर लग गया था। खाने का सामान बेचने वालों की आवाज़ें गूँज रही थीं। इटारसी में गाडियाँ कुछ ज़्यादा ही देर ठहरती हैं। तभी सामने प्लेटफार्म नम्बर 5 पर कुछ हलचल हुई। इंजन से 2-3 डिब्बा पहले एक नौजवान बेतहाशा भाग रहा था। दो कुत्ते उसके पीछे थे। उस नौजवान ने मैली सी चौकडी वाली कमीज़, जो शायद कभी लाल-सफेद रही होगी और काली सी पतलून पहनी थी। दौड़ते हुए अचानक वो नौजवान औंधा गिर पड़ा। दूर से मुझे लगा मानो उसका सिर रेल और प्लेटफार्म के बीच की दरार में समाने ही वाला है। कुत्ते उसके बहुत नज़दीक पहुँच गए। वो नौजवान फुर्ती से उठ कर फिर इंजन की दिशा में दौड़ने लगा। तभी मैंने देखा कि 4-5 और लोग भी कुत्तों की तरह उस नौजवान का पीछा कर रहे थे। इंजन तक पहुँचते-पहुँचते उनमें से एक आदमी ने उस नौजवान का कॉलर पकड़ लिया और उसकी पिटाई शुरु कर दी। बाकि आदमियों ने भी नौजवान की पिटाई में हाथ बँटाया। कुत्तों ने हाँफते हुए कुछ पल उन्हें देखा फिर सिर नीचा कर लौट गए। शायद उनके लिए पिटाई के मुकाबले दौड़ ज़्यादा रोचक थी।
इस बीच एक पुलिस वाला भी वहाँ आ पहुँचा था। वो अचानक की आया था, जो न तो दौड़ रहे कुत्तों में शामिल था और ना ही पीछा कर रहे आदमियों के साथ था। पहले तो पुलिस वाले ने नौजवान का गिरेबान पकड़ कर ज़ोरदार चाँटा लगाया, जिसकी आवाज़ प्लेटफार्म नम्बर 3 पर मुझे साफ सुनाई दी। फिर गिरेबान को थामे हुए ही उसके पुठ्ठे पर लाठियाँ बरसाना शुरु कर दीं। मैंने गिनने की ज़रूरत महसूस नहीं की। इसी मुद्रा में वो धीरे-धीरे लड़के को लेकर आगे इंजन की दिशा में बढ़ने लगा। नौजवान प्रतिरोध करता नज़र नहीं आया। कुछ ही क्षणों में वे दोनों इंजन के आगे अँधरे में कहीं गुम हो गए। मुझे समझ नहीं आया कि पुलिस वाले ने नौजवान को उन आदमियों से मुक्त कराया था या उसे अपना बन्दी बनाया था, या शायद कुछ-कुछ हद तक दोनों ही काम किए थे। पुलिस वाले के मन में क्या था, इसका अन्दाज़ा लगाना मेरे लिए तो मुमकिन नहीं। लेकिन यह तय कि है दोनों की दिशा एक ही थी... इंजन की ओर... कुछ आगे... अँधेरे में।
खैर, वो रेल दिल्ली की ओर रवाना हो गई। कुछ और ट्रेने आईं-गईं। तकरीबन आधे घण्टे बाद हाथ में लाठी लिए वो पुलिस वाला फिर मुझे नज़र आया। इस बार वो प्लेटफार्म के अन्धेरे सिरे से रोशनी की ओर आ रहा था। उसके साथ वो नौजवान नहीं था, बल्कि एक और पुलिस वाला था। फिर वो दोनों कहीं गुम हो गए। मैं पटरियों पर फैंका हुआ खाना खाती गायों को देखने लगा। रात के तकरीबन साढ़े दस बजे गाए रेल की पटरी पर फैंके गए कटलेट, चिप्स, नूडल्स, आलू-पूडी आदि के अवशेषों में मुँह मार रही थी। अगर ये गाय किसी जंगल में होती या किसी गाँव में किसान के पास, तो क्या वो इस वक्त खाने की तलाश में भटक रही होती? या वो क्या यही सब खा रही होती? इस पर मैं सोच रहा था, तभी वो दोनों कुत्ते फिर भागे, लेकिन अबकी बार विपरीत दिशा में। आगे वाले कुत्ते के आगे कोई और नहीं भाग रहा था, लेकिन पीछे दूसरा कुत्ता भाग रहा था। तेज़ी से दौड़ते हुए वो दोनों सीढ़ियों को लाँघने लगे। इस तरह दौड़ना शायद उनका शगल था। गाय कचरे के डिब्बे पर मुँह मार रही थी। सब लोग अपने काम में मशगूल थे। मैं अपनी गाड़ी का इन्तज़ार करने लगा, जो मैं वैसे भी कर ही रहा था।
 मार्च 5, 2015

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