Monday, July 13, 2015

मज़हब और रूहानियक में फर्क


- विनोबा - 


रूहानियत मज़हब से अलग चीज़ है। मज़हब हर ज़माने में, हर कौम के लिए और हर समय के लिए नहीं होता, पर रूहानियत होती है। जैसे प्यार करना, सच बोलना, रहम खाना रूहानियत है। वैसे ही अल्लाह की इबादत करना भी रूहानियत है। लेकिन अल्लाह की इबादत के लिए घुटने टेकना, मगरिब या मशरिक की तरफ मुँह करना - ये सब मज़हब है। अल्लाह के लिए दिल में भक्ति रखो, अल्लाह को हमेशा याद करो, अल्लाह की फिक्र रखों - यह रूहानियत है। सीढियाँ बनाई गईं हैं। इन्सान सीढ़ी पर चढ़ा, लेकिन बीच में ही खड़ा रहा, तो ऊपर पहुँचने के बजाए बीच में ही रुक जाता है। मज़हब इन्सान को एक हद तक मदद पहुँचाता है और बाद में रुकावट बन जाता है। वे नहीं समझते कि मज़हब बदलाता है, न बदलने वाला चीज़ रूहानियत है। मरने के बाद दफनाया जाए या दहन किया जाए? हिन्दू होगा तो दहन करेगा, मुसलमान होगा तो दफन करेगा, पारसी होगा तो वैसे ही मैदान में रख आएगा। यह सब हो गया मज़हब। लेकिन हिन्दू हो या मुसलमान, दूसरा कोई भी हो, अपने मरे बाप की लाश घर में नहीं रखेगा. बल्कि बाईज्जत उसे भगवान के हवाले कर देगा।
दिल्ली जाना है। जाने के लिए पाँच-दस रास्ते हैं। जिस किसी भी रास्ते से जाएँ, मुकाम पर तो पहुँच ही जाएँगे। मज़हब के तरीकों में कभी-कभी फर्क होता है इसलिए मज़हब वाले कभी-कभी नाहक झगड़ते हैं। जैसे कभी ज़बान के झगड़े होते हैं तो कभी जाति के, कभी सूबे को लेकर तो कभी मुल्क के दीगर सवाल को लेकर, उसी तरह मज़हब के भई झगड़े होते हैं। मैं नहीं समझता कि ऐसे झगड़े क्यों होने चाहिए। मज़हब से भी जज़्बा पैदा होता है। 

मुझसे लोग पूछते हैं कि क्या आप कुरान शरीफ पढ़ते हैं? मैं कहता हूँ - जी हाँ। फिर पूछते हैं - क्या उन आयतों पर चलते हैं? जी नहीं, क्योंकि जिस आयत से मुझे जितना ले लेना होता है, उतना लेता हूँ। मगर किसी आयत का, गीता का, कुरान शऱीफ का, बाइबल या किसी भी किताब का बोझ नहीं उठाता। उसमें जो बात जँचती है, उसे ले लेता हूँ।
कई धर्मवाले मूर्तिपूजा नहीं चाहते, लेकिन किताबपरस्त ज़रूर बन जाते हैं। वे किताब के बारे में कुछ खास जानते तो नहीं हैं। एक जगह मुझसे मिलने के लिए कुछ पण्डित लोग आए थे। वे वेद नहीं पढ़ सके। वेद नहीं समझ पाए तो कोई बात नहीं, क्योंकि वह बहुत कठिन चीज़ है। किन्तु पढ़ते समय वे उच्चारण भी ठीक नहीं करते थे। ऐसी हालत है उनकी। इस पर भी कितनी ज़िद रखते हैं। वे किताब को पकड़े रहते हैं, उसे सिर पर उठाए रहते हैं।
धर्मग्रन्थ और धर्मशास्त्र इन्सान के लिए होते हैं या इन्सान उनके लिए? किताब में से ऐसी ही चीज़ लेनी चाहिए, जो अपने लिए मुफीद हो। दवा की किताब में हर तरह की बामारी की, मर्ज की दवा बताई होती है। पर क्या सभी दवा मुझे लेनी ही चाहिए? नहीं। मेरे मर्ज के लिए जिसकी ज़रूरत हो, वही लेनी चाहिए। किताब में पचासों चीज़ें होती हैं। उनमें से कुछ ही ऐसी होती हैं, जो सबके लिए हैं। उसी का नाम है रूहानियत। जैसे, एक दूसरे को सत्य पर चलने के लिए मदद करो। एक-दूसरे पर रहम रखना सिखाओ। हक, सब्र, खिदमत ये सब सबको लागू होते हैं। पारसी, हिन्दू, मुसलमान आदि सभी धर्मवालों पर लागू होते हैं। इसी का नाम है रूहानियत।
कुछ लोग रात में फाका करते हैं, कुछ लोग दिन में। जैन लोग शाम को सूरज डूबने से पहले खा लेंगे। वे कहते हैं कि रात में चूल्हा जलने से जन्तु, कीड़े, आदि मरते हैं। मुसलमान रोज़ा रखते है। वे रात में खाएँगे, दिन में नहीं। स्वास्थ्य रखने के लिए फाका करना - यह है रूहानियत। ज़ियारत के लिए मक्का जाना, अजमेरा जाना या काशी जाना, अमरनाथ जाना - यह सब है मज़हब, लेकिन कभी-कभी घर छोड़कर खिदमत के लिए बाहर निकलना - यह रूहानियत है। मैं काशी गया। वहाँ मुझे खुशी हुई। अजमेर गया, वहाँ भी खुशी हुई। जहाँ-जहाँ जियारत की जगह है, वहाँ-वहाँ मुझे खुशी होती है, बहुत ताकत मिलती है। कुछ अमरनाथ जाने वालों को देखकर कहते हैं कि ये कितने मूर्ख हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जहाँ-जहाँ यात्रा के स्थल हैं, तीर्थक्षेत्र हैं, वहाँ-वहाँ जाना अच्छा ही है। रूहानियत और मज़हब में फर्क में समझ लेना चाहिए।

धर्म के नाम पर चलनेवाले लोग रीति-रिवाज़ों से चिपके रहते हैं इसलिए झगड़ते रहते हैं। वे मूल चीज़ को पकड़ नहीं पाते। ये तो एक-दूसरे की किताब पढ़ते नहीं हैं। मैंने कुरान शरीफ पढ़ा है और उसमें अनमोल रत्न पाए हैं। गीता में गोता लागाया है और वहाँ जवाहर पाए हैं। बाइबल पढ़ी और उसमें भी बहुत अच्छी नसीहत पाई हैं। पंजाब में गुरु नानक की किताबें पढ़ीं और वहाँ भी उम्दा चीज़ें पाईं। झगड़ा करने वाले झगड़ा करें, लेकिन मैने देखा कि गुरु नानक, मुहम्मद, ईसा, मूसा, बुद्ध, रामस कृष्ण - ये सब लड़नेवाले नहीं थे। फिर भी उनके भक्त कहलानेवाले आपस में लड़ते रहते हैं, एक-दूसरे को उभाड़ते रहते हैं। कौमों में फसाद, झगड़ा कराते रहते हैं। यह सारा पाप है। धर्म के नाम पर यह सब करना तो दोहरा पाप है। धर्म की इस गौण और बदलनेवाली बातों के पीछे हम कब तक पागल बने रहेंगे।

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