Saturday, May 11, 2013

लिक्विड सोप

बात कल शाम की है।
जैसे ही मैं अपने ऑफिस के पेशाबघर में दाखिल हुआतो अन्दर दो लड़कों को हड़बड़ाट में पाया। दोनों की उम्र तकरीबन 12-13 साल की होगी। मेरे दरवाज़ा खोलते ही  एक लड़का जो उम्र और कद में कुछ छोटा था अपनी फटी हुई सी पतलून में कुछ छिपाता हुआ घूम गया और उसकी पीठ मेरी ओर हो गई। दूसरा लड़का अचकचा कर पेशाब करने की जगह पर चढ़ गया और पेशाब करने लगा। मुझे कुछ अजीब सा लगा। लेकिन उस वक्त मैं कुछ सोच नही सका और उनसे सिर्फ इतना पूछा - "क्या बात है?”

कोई बात नहीं।” कह कर वे दोनों दरवाज़े से रफा-दफा हो गए।

मुझे लगा कि समलैंगिक सम्बन्ध बनाने के लिए तो ये छोटे हैं। किसी लगभग सार्वजनिक पेशाबघर जैसी जग पर इस उम्र के लड़के शायद ऐसा साहस कर भी नहीं सकते। मैंने खुद को समझाईश दी और फारिग होकर हाथ धोने के लिए नल की टोटी को मरोड़ा। तभी नज़र उस सूनी जगह पर गई जहाँ हाल ही में लिक्विड सोप का शीशी रखवाई गई थी।

बाज़ार में तमाम कम्पनियों के लिक्विड सोप आ गए हैं। उसकी शीशी के सिर पर एक फव्वरा सा लगा होता है। दबाते ही तरल साबुन की दो-चार मोटी खुशबूदार बूँदें हथेली पर उतर आती हैं। जब से ये बाज़ार में आईं है तब से अचानक ही साबुन की टिकिया गन्दी और इस्तेमाल की हुई लगने लगी है। यही वजह है कि हमारे ऑफिस के लोगों ने खुद को साफ-सुथरा और तरक्कीपसन्द बनाए रखने के लिए सभी माकूल जगहों पर लिक्विड सोप की शीशियाँ रखवाईं है।

समझने में मुझे देर नहीं लगी कि उन्होंने लिक्विड सोप पर अपना हाथ साफ किया है।

एक बार तो मुझे बुरा लगा कि बच्चे बड़े बदमाश है, चोर हैं। उनका यहाँ लाइब्रेरी में आना बन्द कर देना चाहिए... संस्था को नुकसान पहुँचाते हैं... किताबें भी चुरा कर ले जाते हैं...

लेकिन दूसरे ही पल अच्छा लगा कि साबुन ही तो चुराया है... शायद इस हसरत से कि आमीर लोग जैसे खुद को साफ रखते हैं, वैसे ही हम भी खुद को साफ रखेंगे... हाथ, मुँह... सब कुछ। हो सकता है कि वो शीशी और उसमे लगा फव्वारा उनके हैरानी का सबब हो। वे खोल-खाल कर उसकी पड़ताल करना चाहते हों कि दबाने भर से साबुन बाहर कैसे आ जाता है?

जो भी हो मुझे दुख नहीं। किताब चुराने या न लौटाने पर भी तो हम उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं कहते।

लेकिन फिर भी एक सवाल परेशान किए हुए है - कहीं हम चोरी के चस्के को लत में बदले का बढ़ावा तो नहीं दे रहे?

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