Thursday, December 22, 2011

जीवन शिक्षा... जो मुझे मिली

७ जनवरी को हमारी माई, यानी प्रवीणा देसाई अपनी उम्र के ७५ वर्ष पूरे कर रही हैं।
इस मौके पर कुछ लिखने के लिए निलयम् के साथी किशोर ने मुझे बार-बार कहा।
जो लिखा वह आपके साथ भी साझा कर रहा हूँ। 
  - अमित -
 
इन्दौर की बात है... ठीक-ठीक कहूँ तो इन्दौर शहर के पास स्थित कस्तूरबाग्राम की बात है। मैं वहीं रहता था अपनी माँ और बहन के साथ। कम उम्र में जीवन के कुछ कटु और कठोर अनुभवों से गुज़रा था, इसलिए अपने समवयस्कों से कुछ अधिक अनुभवी था। शिक्षा के नाम पर पुस्तकीय ज्ञान से उपजी बौद्धिक समझ के साथ-साथ दुनिया और दुनियादारी के प्रति अपना एक निजी नज़रिया भी था - भले ही वह गलत रहा हो। शायद इस वजह से व्यक्तित्व में कुछ खिलन्दडपन, बेबाकी और ज़ुर्रत भी शामिल हो गई थी।
माई से मेरी मुलाकात अनायास हुई। कस्तूरबाग्राम में कोई शिविर था। कॉलेज की छात्राएँ उसमे शामिल थीं। हम कुछ दोस्त भी जाकर उनके पीछे बैठ गए। मस्ती और मज़ा। पीछे बैठकर छेड़खानी, मज़ाक और मस्ती चलती रही। पर ज़्यादा देर तक वहाँ बैठे रहने के लिए ज़रूरी था कि शिविर के मंच से चल रही चर्चा को सुना जाए ताकि लोग हमें भी शिविर में शामिल मानें।


सामने छोटे कद की एक महिला बैठी थी। उन्होंने खादी की सफेद साडी पहन रखी थी जो कस्तूरबाग्राम में उस तरह के शिविरों में आने वाली अमूमन हर महिला पहना करती थी। उनका चेहरा भी साधारण था, आवाज़ कुछ असाधाण और तीखी थी, मगर उसमें तेज था... उस आवाज़ में बाँध लेने वाली कशिश थी। मेरा ध्यान उनकी बातों की तरफ गया। वे भारतीय संस्कृति का गुणगान कर रही थीं। अपनी धाक जमाने के लिए या लोग (याने कॉलेज की लड़िकयाँ) मुझ पर ध्यान दें इसलिए या शायद बहस की आदत की वजह से या फिर शायद अनायास किसी अज्ञात की प्रेरणा से... आज कह नहीं सकता कि इनमें से कौन-सा कारक

हावी था या शायद ये सभी बातें मिलजुल गई थीं, मैने बोलने के लिए हाथ उठाया और बारी आने पर भारतीय संस्कृति का महत्ता पर कटाक्ष करते हुए मंच पर बैठी महिला से बहस करने लगा। मैं मानता हूँ कि मेरा दिमाग औसत से कुछ तेज़ था (शायद अब उतना तेज नहीं रहा) और किताबों, पत्रिकाओं, अखबारों को रोज़ना पढ़ा करता था... मतलब बहस को लम्बा खींचने का दक्षता मुझे हासिल थी। कुछ देर तो यह चलते रहा, फिर उस महिला ने वही तरीका अपनाया जो ऐसे मौकों पर बहुदा आज़माया जाता है - "ठीक है, अपन शाम को अलग से बात करेंगे।" उनकी बात मैंने पकड़ ली और शाम की प्रार्थाना के बाद मिलना तय करके बाहर निकल आया।
वहाँ शाम पाँच बजे सामूहिक प्रार्थना हुआ करती थी। हमारे लिए वो दिन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता था। सारी लड़कियाँ होस्टल से चलकर प्रार्थना हॉल तक जातीं और तकरीबन आधे घण्टे बाद वापस होस्टल को लौटतीं। हमारी प्रिय जगह होती पुलिया! वहाँ बैठकर सारे दोस्त गपबाजी करते और एक बार उन्हें इधर से उधर और फिर उधर से इधर जाते देखते। कभी हम उनकी विपरीत दिशा में टहलते हुए जाते। कभी मैदान पर क्रिकेट खेल रहे होते तो ठीक उसी समय गेन्द खोजने के बहाने सड़क पर आ जाते।
अपना ये नित्यकर्म पूरा करके मैं नियत समय पर उस महिला के पास पहुँच गया। शायद वे भी तैयार थीं। मेरे साथ मेरे कुछ दोस्त भी थे और बाहर से आए कुछ शिविरार्थी भी इस समूह में गोल घेरा बना कर बैठ गए। मैं भारतीय संस्कृति का निपटारा करने की फिराक में गया था, लेकिन वह महिला अलग ही धरातल पर थी। अपनेपन से बातें की। मुझसे अपने और परिवार के बारे में पूछा। फिर उन्होंने बताया कि वर्धा में युवाओं के लिए एक केन्द्र है, वहाँ कुछ युवक रहते और देश-दुनिया के बारे में अध्ययन करते हैं। मुझे वहाँ आने का आमंत्रण दिया। बातचीत खत्म होते समय हमने एक-दूसरे का पता भी लिया-दिया। पते से पता चला कि उनका नाम प्रविणा देसाई है और पवनार आश्रम में रहती हैं।
मैंने महसूस किया कि अब तक जितने गाँधीवादियों से मेरा समना हुआ है, उनसे वे कुछ अलग हैं। उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ है जो मुझे आकर्षित कर रहा था। मैंने उन्हें पत्र लिखा। उसमें भी कुछ सवाल, कुछ आशंकाएँ.. याने बहस का पर्याप्त मसाला था! कुछ दिनों बाद उनका जवाब आया। अपेक्षा के विपरीत अपनेपन से भरा। बहस को टाल कर उन्होंने मुझे वर्धा स्थित युवा केन्द्र 'निवेदिता निलयम्' में आकर रहने को कहा। फिर मैंने खत लिखा... उनका जवाब आया। यह सिलसिला तकरीबन एक साल चला।
आखिर मैंने इरादा मजबूत किया और निवेदिता निलयम् पहुँच गया। वहाँ राम भाई, अक्षय, राजा, गजानन्द वगैराह साथी मिले। मन रम गया। खूब पढ़ा, बहस की, खेत में काम किया, गड्ढे खोदे, खूब मूँगफलियाँ खाई और छक कर दूध पिया... इन सब ने मिलकर हमारे व्यक्तित्व को एक साझा आकार दिया।
उस वक्त निलयम् के संचालन की कमान राम भाई के हाथ में थी। माई के पास पवनार जाकर सीखने के सभी के दिन तय थे - रामभाई बृहस्पति, गजानन्द सोमवार.... मैंने भी कोई दिन तय कर लिया। पर नियमित जाना होता नहीं था। डायरी लिखता, मगर वह भी अनियमित। फिर भी पढ़कर माई तारीफ करती थी। माई के पास सब गीता सीखने जाते। गीता माई के श्वास में बसती है... शायद इसी लिए निलयम् की हवा में भी गीता समाई हुई है... और शायद यही वजह है कि मैंने माई के पास बैठकर कभी गीता नहीं सीखी... जो सहज उपलब्ध हो उसे सायास क्या सीखना...? ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई... मैंने यह घोषणा ज़रूर कर दी थी कि मुझे तीसरे अध्याय का पैंतीसवाँ और चौथे अध्याय का चालिसवाँ श्लोक पसन्द आया।
मैंने और लोगों की तरह उनके साथ बैठकर नहीं सीखा, मगर उनकी उपस्थिति में, उनके सानिध्य से, उन्हें देख कर बहुत कुछ सीखा। आज मैं जो कुछ हूँ, वह माई की वजह से हूँ। माई से मुझे जीवन दृष्टि मिली, मैंने जीवन का अर्थ उन्ही से सीखा। जीवन में मैंने ज्ञान का जो थोड़ा-सा रस चखा है वह भी माई के ही आशीर्वीद का फल है।
मैं जानता हूँ कि माई मुझसे खुश नहीं हैं। मैं उनके सपनों को पूरा नहीं कर पाया, उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा, उनकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया। मगर जैसा भी हूँ उनका बेटा हूँ और मुझे गर्व है कि मैंने अपने जीवन का एक अरसा प्रविणा देसाई के सानिध्य में गुजारा है।
कामना करता हूँ कि वे शतायू हों और उनका आशीर्वाद सदैव हमारे साथ रहे।
शुभकामना

1 comment:

डॉ. सागर कछवा said...

iआप के ख़यालात और विचारो से रूबरू हुआ. अच्छा लगा.