Sunday, January 24, 2010

क्‍या सबको शिक्षा दिला पयेगा यह विधेयक ?

- अमित
कितना अच्छा हो अगर देश के सभी बच्चों को स्कूल जाने का मौका और साधन मिले, शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य हो। वह दिन कब आएगा, जब सभी स्कूलों में बच्चों को बैठने के लिए पर्याप्त कमरे होंगे, एक कक्षा में कम से कम एक शिक्षक होगा, सभी शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण प्राप्त होगा। जब स्कूल में एक पुस्तकालय भी होगा, शिक्षक ट्यूशन का धंधा नहीं करेंगे, स्कूलों के प्रबंधन व निगरानी में अभिभावक की भी हिस्सेदारी होगी और यह सब सुनिश्चित करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी होगी।
पिछले सत्र में राज्यसभा में बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार विधेयक-2008 पारित हुआ है और लोकसभा में पास होने के बाद कानून बन जाएगा। आजादी के बाद से ही शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने और सभी बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा मुहैया करने की मांग सरकार से की जाती रही थी। अंततोगत्वा वर्ष 2002 में संविधान में 46वां संशोधन करके अनुच्छेद 21क जोड़ा गया, जिसमें छह से चौदह वर्ष की आयु समूह के सभी बालक-बालिकाओं के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में उपबंधित किया गया।
संविधान संशोधन के छह साल बाद यह विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जा सका। संविधान संशोधन के पूर्व राज्य के नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 45 में कहा गया है, राज्य इस संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष के भीतर सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करेगा। उन दस वर्षो की अवधि तो 1960 में पूरी हो गई। चूंकि यह राज्य के नीति निदेशक तत्व वाले भाग में था, इसलिए सरकार बाध्य नहीं थी। काफी जद्दोजहद के बाद वर्ष 2002 में शिक्षा का अधिकार संविधान के मूल अधिकारों में समाविष्ट तो हुआ, मगर यह अधिकार सभी बच्चों को न देकर केवल छह से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों को मिला। आयु के मसले पर विवाद है। एक पक्ष का कहना है कि शिक्षा का मूल अधिकारों में शामिल होना एक बड़ी जीत है। दूसरा पक्ष कह रहा है कि राज्य के नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 45 अधिक व्यापक था। उन्नीकृष्णन फैसला (1993) भी इस दिशा में एक मील का पत्थर था, जिसमें कहा गया कि अनुच्छेद 45 को अनुच्छेद 21 (दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के साथ देखा जाना चाहिए। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि चौदह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को नि:शुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। वर्तमान अधिनियम का विरोध करने वालों का कहना है कि जन्म से चौदह वर्ष तक नि:शुल्क शिक्षा पाने का जो अधिकार पहले से मिला हुआ था, वह संविधान के 46वें संशोधन में सीमित होकर छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए ही रह गया है।
इस विधेयक की सकारात्मक बातों में सर्वप्रमुख है छह से चौदह वर्ष की आयु के प्रत्येक बालक (और बालिका) को आसपास के स्कूल में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिलना। इस विधेयक में पड़ोसी स्कूल के रूप में सरकारी स्कूलों के साथ-साथ पूर्ण या आंशिक सरकारी अनुदान पाने वाले स्कूल तो हैं ही, पूर्णत: निजी, नवोदय, केंद्रीय और सैनिक विद्यालय भी शामिल हैं। सरकारी स्कूलों में सभी बच्चे नि:शुल्क पढ़ेंगे। अनुदान पाने वाले विद्यालयों को अनुदान की मात्रा के अनुपात में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बच्चों को भर्ती करना होगा। निजी स्कूलों को प्रत्येक कक्षा में कम से कम 25 प्रतिशत छात्र आसपास के इलाके से आने वाले उपरोक्त दोनों समूहों से होने आवश्यक हैं। प्रकारांतर से यह प्रावधान निजी क्षेत्र में आरक्षण का सूत्रपात करता है। निजी विद्यालयों को सरकार अपने द्वारा शिक्षा पर होने वाले प्रति छात्र खर्च के औसत के आधार पर नियत राशि देगी। स्थानांतरण प्रमाण-पत्र, जन्म प्रमाण-पत्र जैसे किसी भी दस्तावेज के अभाव में बालक का दाखिला रोका नहीं जा सकता।
विधेयक में कहा गया है कि देश के हर क्षेत्र में समुचित संख्या में और समुचित दूरी पर स्कूलों की स्थापना का दायित्व सरकार और स्थानीय निकायों का है। विधेयक में स्कूल के मान और मानक भी तय किए गए हैं। साथ ही स्कूल का अर्थ सभी मौसमों में सुरक्षा देने वाला ऐसा भवन अपेक्षित है, जिसमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा, खेल का मैदान तथा लड़के और लड़कियों के लिए पृथक शौचालय हो। पाठशाला भवन में रसोई का भी प्रावधान है। इसका अर्थ है कि अब गली-कूचों में घटिया दर्जे के निजी स्कूल नहीं होंगे। कहा जा सकता है कि इस प्रकार के प्रावधान अनेक बार किए जा चुके हैं, मगर शिक्षा विभाग में व्याप्त लालफीताशाही और सरकारी शिक्षकों के उदासीन रवैये के चलते सारी योजनाएं कागजों पर धरी रह जाती हैं। यह सच है, मगर इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह विधेयक दो कदम आगे की बात कर रहा है, क्योंकि एक तो यह संविधान के मूल अधिकार से संबद्ध है, इसलिए इसके उल्लंघन या अवमानना को न्यायालय के कठघरे में खड़ा किया जा सकता है और दूसरे इसमें एक विद्यालय प्रबंधन समिति का भी प्रवधान है, जो (सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करने वाले गैर-सरकारी विद्यालयों को छोड़कर) सभी स्कूलों में बनाना अनिवार्य होगा। इस समिति में कम से कम तीन-चौथाई सदस्य माता-पिता होंगे और उसमें भी असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बच्चों के माता-पिताओं को समानुपातिक प्रतिनिधित्व मिलेगा।
असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के बदले अच्छी पढ़ाई की लालच में अनुदान प्राप्त और गैर-अनुदान प्राप्त निजी स्कूलों में भेजेंगे। उन तथाकथित अच्छे स्कूलों में वंचित वर्ग के बच्चों से कैसा व्यवहार होता है, इस पर निगरानी रखने की आवश्यकता है। इसी क्रम में कहा जा सकता है कि कस्बों और गांवों में, जहां अब तक निजी स्कूल नहीं हैं, वहां अनेक निजी स्कूल भी खुल सकते हैं। ऐसे स्कूल संचालकों को अब फीस मिलने में जोखिम का डर नहीं होगा। उन्हें अधिक से अधिक संख्या में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बच्चों को भर्ती करना होगा। उनकी फीस तो सरकार देगी। इस परिप्रेक्ष्य में सरकारी स्कूलों का क्या होगा? ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र में सरकारी विद्यालय वैसे भी बदनाम हैं - मास्टर नहीं आता, आता है तो पढ़ाता नहीं, आदि शिकायतें आम हैं। ऐसे में पालकों का रुझान निजी स्कूलों की ओर होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि विधेयक के आलोचक इस पर निजीकरण का हितैषी होने का आरोप लगा रहे हैं।
खैर, अनिश्चितता के बावजूद कहा जा सकता है कि यह विधेयक भारत की शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव का सूत्रपात करेगा। भारत की शिक्षा की भावी दिशा और दशा का समुचित अंदाजा इस विधेयक के कानून बनने के कुछ वर्षो बाद ही लगाया जा सकेगा।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
दैनिक जागरण, राष्‍ट्रीय संस्करण, 29 जुलाई 2009

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