Sunday, January 24, 2010

पैसों का खेल

- अमित
पिछले दो हफ्तों के दौरान भारत के खेल जगत में चार महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई हैं। एक, बोनस, चिकित्सा बीमा, आदि नहीं मिलने के कारण भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने विश्व कप की तैयारी के लिए आयोजित शिविर में भाग लेने से इनकार किया। दो, भारत के सर्वोच्च रायफल महासंघ ने निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा को आगामी दो विश्वकपों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। महासंघ की जिद के बावजूद अभिनव बिन्द्रा निशानेबाजी का टेस्ट देने को तैयार नहीं थे। तीन, पुरुषों के नक्शेकदम पर चलते हुए भारत की महिला हॉकी टीम ने भी मेहनताना को लेकर विरोध जताया। चार, मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने भारतीय महिला हॉकी टीम को संकट से उबारने के लिए एक करोड़ रुपये देने की घोषणा करने के साथ ही राजनेताओं से यह अनुरोध भी कर दिया कि वे खेलों को बख्श दें और उन्हें राजनीति का अखाड़ा न बनाएं।
इन घटनाओं पर विचार किया जाना इस लिए आवश्यक है कि यह खेलों के बदलते स्वरूप के साथ-साथ खिलाड़ियों के बदलते चरित्र को भी व्यक्त करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं कि हम इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कौन-सा पक्ष लेते हैं, या समाधान का कौन-सा रास्ता अपनाते हैं। इन घटनाओं के माध्यम से यह समझ लेना महत्वपूर्ण है कि अब हम खेलों और खिलाड़ियों को पुराने नज़रिये से नहीं देख सकते।
खेलों का प्राथमिक उद्देश्य मनोरंजन है। दर्शकों के मनोरंजन के लिये खेल खेलने से बहुत पहले ही मनुष्य अपने मनोरंजन के लिये खेलने लगा था। शायद मानव ने सभ्य होने की प्रक्रिया के दौरान ही अपने मनोरंजन के विभिन्‍न तरीके भी ईजाद कर लिये थे, खेल भी उन्हीं में से ही एक हैं। आगे चलकर खेलों को नियमबद्ध किया गया होगा और उनमें दक्षता के विकास के साथ ही खिलाडियों में अपनी दक्षता के प्रदर्शन का भाव जागृत हुआ होगा। यहीं से कहीं हम खेल स्पर्धाओं का आरम्भ मान सकते हैं। खेल स्पर्धाएं खिलाड़ियों और समुदाय, दोनों के लिए परस्पर पूरक हैं। इनसे खिलाडियों को समाज की स्वीकृति और प्रशंसा मिलती है, वहीं यह जनता के लिये मनोरंजन का एक साधन भी है। शुरूआती दौर में, हार-जीत को खेल का ही हिस्सा माना जाता था, यह न तो खिलाड़ी के लिये और ना ही प्रशंसकों के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था। `खेल भावना´ शायद इसी को माना गया था। इसी वजह से ओलिम्पक खेलों के बारे में यह कहा जाता था, कभी-कभार अब भी दोहरा दिया जाता है, कि इसमें भाग लेना महत्वपूर्ण है - हार या जीत नहीं!
औद्योगिक क्रान्ति ने उत्पादन सम्बन्धों में आमूल परिवर्तन कर दिया। परिणास्वरूप समाज के भीतर सामन्ती कहे जाने वाले सम्बन्धों एवं व्यक्तियों का सामाजिक आचरण भी बदल गया। ज़मीन से लगाव, सामुदायिक सम्बन्धों को महत्व देना, अपने हर कार्य को आर्थिक लाभ-हानि के तराजू में न तौलना, हर वस्तु और सेवा को `पण्य माल´ न मानना, आदि मूल्यों को सामन्ती, और इसी लिये त्याज्य मान लिया गया। पूंजीवाद कहता है कि मनुष्य जो कुछ भी `करता´ है, वह `श्रम´ है और उसका एक बाज़ार मूल्य होता है, अत: व्यक्ति अपना श्रम बेच कर धन कमा सकता है। इसे `आजीविका उपार्जन´ कहा गया। आर्थिक व्यवहार का उद्देश्य केवल और केवल मुनाफा कमाना है। मुनाफा अभिमुखी आर्थिक व्यवहार ही समाजिक सम्बन्धों का आधार है और वही उनका नियन्ता भी है( अतएव व्यक्ति उसी काम की ओर प्रवृत्त होगा, जिससे उसे अधिक मुनाफा मिले। हम चाहें या न चाहें, पूंजीवादी दशZन के ये मूल्य समाज में स्थापित हो चुके हैं और सामन्ती माने जाने मूल्य बहुत पीछे छूट चुके हैं।
पूंजीवादी मूल्यों की इस रोशनी में अब हम खेलों को देखते हैं। खिलाड़ी अपने खेल के माध्यम से दशZकों का मनोरंजन करते हैं। मनोरंजन के लिये दर्शक पैसा खर्च करते हैं। इस प्रकार मनोरंजन एक व्यवसाय है, जिसका प्रबन्ध खिलाड़ी और दर्शक को एक स्थान पर लाने वाला तीसरा पक्ष करता है। वह तीसरा पक्ष अपने इस प्रबन्ध-कौशल का उपयोग लाभ कमाने के लिए करता है। चूंकि इस व्यवसाय में खिलाडियों की हैसियत `श्रमिक´ की है, उन्हें उनका पारिश्रमिक दिया जाता है। पारिश्रमिक लेकर खेलने वालों को पेशेवर खिलाड़ी कहा जाता है। प्रौद्योगिकी के विकास का पूरा दोहन करते हुए खेल व्यवसाय के प्रबन्धकों ने लाभ कमाने नए-नए स्रोत ईजाद कर लिये हैं, जैसे - टी. वी. पर प्रसारण अधिकार देना, खिलाड़ी के जूते, टोपी, चड्डी, बनियान, पतलून, खेल साधन (बल्ला, रैकेट, आदि) से लेकर खेल के मैदानों के चप्पे-चप्पे पर विज्ञापन प्रदर्शित करना, प्रतियोगिताओं के प्रायोजन अधिकार देना, एस. एम. एस. पर सवाल-जवाब, वगैराह।
यहां तक पहुंचते-पहुंचते पूंजीवादी अर्थतन्त्र पर्याप्त परिष्कृत एवं व्यापक हो गया है और अब लाभ कमाने के लिये वह उत्पादन करने जैसे पुरानी पद्धति पर निर्भर न रहकर नित् नये ऐसे व्यवसाय ईजाद कर रहा है, जिससे आसान तरीकों से अधिकाधिक मुनाफा कमाया जा सके। खेल ऐसा ही एक वर्धमान व्यवसाय है। यूरोपीय फुटबॉल लीगों में खिलाड़ियों को मोटी रकम देकर खेलने के लिये अनुबन्धित करने से लेकर इण्डियन प्रि‍मीयर लीग में बीसमबीस क्रिकेट खेलने के लिये दुनिया भर के खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त तक के विकासक्रम में खिलाड़ी जान गए हैं कि इक्कीसवीं सदी के पूंजीवादी अर्थ-सम्बन्धों में हम श्रमिक नहीं रहे, वरऩ `माल´ बन गये हैं। अब उनसे यह अपेक्षा करना बेमानी है कि वे किसी एक क्लब, क्षेत्र या देश से बन्धे रहें। अब खिलाड़ी खरीद-फरोख्त के लिये सरेआम अपनी बोली लगने से शर्मसार नहीं होते, बल्कि हॉकी, निशानेबाजी जैसे अबतक पूरी तरह व्यवसायिक नहीं हुए खेलों के खिलाड़ियों को तो शायद इस बात का खेद है कि हमारी निलामी क्यों नहीं की जा रही है।
खेलों में सफलता खिलाड़ियों पहचान और प्रतिष्ठा देती है, इस तरह कुछ खिलाड़ी सेलिब्रेटी का दर्जा पा लेते हैं। व्यवसाय के दौर में खेलने की दक्षता के प्रति दर्शकों का समर्थन एवं खिलाड़ियों के व्यक्तित्व के प्रति प्रेम को खेल के मैदान के बाहर भी भुनाया जाता है। जिसे अब `ब्राण्ड वैल्यू´ कहा जाता है। विज्ञापन इसका सर्वाधिक प्रचलित माध्यम है। खिलाड़ी खेल के माध्यम से अपनी `ब्राण्ड वैल्यू´ स्थापित कर लेते हैं और बाज़ार से उसका पूरा मूल्य वसूलना चाहते हैं।
किसी व्यवसाय के सभी स्वरूप समान रूप से लाभकारी नहीं होते। भारत में क्रिकेट का व्यवसाय सफल हो गया है, जिसमें प्रबन्धक, खिलाड़ी, प्रायोजक, आदि सभी हिस्सेदार भरपूर मुनाफा कमा रहे हैं। संयोग से हॉकी अब तक उस व्यवसायिक सफलता से वंचित है। भारत की हॉकी टीमों और खेल प्रबन्धकों के बीच का विवाद हॉकी के खेल को व्यावसायीकृत करने की दिशा में आगे बढ़ाएगा, क्योंकि खिलाडियों को अपना बाज़ार मूल्य, प्रबन्धकों को खेल का व्यवसाय करने का अवसर और प्रायोजकों-विज्ञापनदाताओं को अपने लिये एक नया बाज़ार चाहिये।
इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो शिवराज सिंह चौहान का अनुरोध इस दुविधा से उपजा वक्तव्य है कि व्यवसायिकरण के बाद सूत्र-संचालन किसके हाथ होगा र्षोर्षो उनकी यह मंशा कि राजनेता खेल प्रबन्धन से दूर रहें, बहुत ही पवित्र और भोली मनोकामना है, क्योंकि राजसत्ता के सूत्रधार के रूप में राजनेताओं के पास अनेक सूचनाओं और अधिकार के साथ ही कौशल भी होता है, इसी लिए तो सभी राजनीतिक दलों के नेता विविध खेल संघों के प्रमुख हैं या होना चाहते हैं। राजनेता के बाद, दूसरा स्वाभाविक दावेदार कार्पोरेट दिग्गज हैं। बुजुर्ग खिलाड़ी खेल संघों के प्रमुख नहीं बन सकते, क्योंकि खेलों का व्यावसायिक चरित्र इसे असम्भव बनाता है। केवल वे ही पूर्व खिलाड़ी खेल संघों में कोई निर्णायक भूमिका निभा पायेंगे, जो राजनीति या कार्पोरेट क्षेत्र में से किसी एक में जज़्ब हो गए हैं, क्योंकि अब खेल बाज़ार की वस्तु है।

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